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अल्बैर कामू और भगवदगीता

शरद चंद्रा

प्रकाशक : राजकमल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :123
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 2844
आईएसबीएन :8126712082

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प्रख्यात फ्रांसीसी लेखक अल्बैर कामू के लेखन पर अर्थहीनता, अस्तित्वबोध और मृत्युबोध का गहरा प्रभाव है। लेकिन उनकी सबसे बड़ी विशेषता है, इस त्रासद स्थिति के बीच रहकर भी जीवन के आनन्द की तलाश।

Albair Kamu aur Bhagwatgita a hindi book by Sharad Chandra - अल्बैर कामू और भगवदगीता - शरद चंद्रा

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

प्रख्यात फ्रांसीसी लेखक अल्बैर कामू के लेखन पर अर्थहीनता, अस्तित्वबोध और मृत्युबोध का गहरा प्रभाव है। लेकिन उनकी सबसे बड़ी विशेषता है, इस त्रासद स्थिति के बीच रहकर भी जीवन के आनन्द की तलाश। उसका आशावाद सहसा उपनिषद के उस प्रसंग से जुड़ जाता है जिसमें चारों तरफ मृत्यु से घिरा एक मनुष्य दूब की नोक पर टपकी मधु के बूँद को चाट लेने का उपक्रम करता है। विद्वान लेखिका शरद चन्द्रा ने भारतीय दर्शन तथा चिन्तन के परिप्रेक्ष्य में कामू के लेखन में व्याप्त अन्तर्भूत विचारों का गहन अध्ययन किया है। उनके अनुसार अर्थविहीनता, सामान्य समझ से परे की बातें, अबोध दुख और क्लेश तथा मृत्युबोध के साथ-साथ चिन्तन, विद्रोह और आनन्द से सम्बन्धित धारणाएँ भारतीय चिन्तन से सीधे जुड़ी हैं। लेखिका ने अपने अध्ययन के माध्यम से कामू के विचारों को ही नहीं भारतीय चिन्तन परम्परा के भी कुछ तत्त्वों को उदघाटित किया है, जिन पर सामान्यतया अध्येताओं का भी ध्यान नहीं जाता है। इस दृष्टि से इस पुस्तक की उपादेयता बढ़ गयी है।

प्राक्कथन

कई वर्षों पहले जब मैं कामू की कृतियों का अध्ययन कर रही थी तो मुझे लगा कि कामू के दर्शन और भारतीय चिन्तन में एक अद्भुत साम्य, नैकट्य है। उनकी कृति ‘द आउट साइडर’ को पढ़ते वक्त मुझे उनके लेखन में बारम्बार ‘कठोपनिषद्’ के विचारों की अनुगूँज सुनाई दी। उनकी अन्य कृतियों को भी मैंने भारतीय चिन्तन के साथ उनके विचारों में समानता देखी। मैं अपनी इसी प्रतिक्रिया को पुष्ट करनेवाले तथ्यों को एकत्र करने में जुट गई और जब मैंने पर्याप्त प्रमाण इकट्ठा कर लिए तो कामू के चिन्तन पर भारत तथा विदेशों में आयोजित संगोष्ठियों में उनके लेखन के इस पहलू पर प्रकाश डाला। मैंने इसी विषय पर दो पुस्तकें भी प्रकाशित कीं। मेरी मान्यताएँ बलवती होती गईं।

कामू के चिन्तन को तीन मुख्य विचार प्रभावित करते हैं : अर्थहीनता (एब्सर्डिटी), मानव स्थितियाँ एवं मृत्यु की अनिवार्यता और प्रथम दो स्थितियों के बावजूद आनन्द या खुशी की अदम्य तलाश। दुख और क्लेश हैं, ‘‘लेकिन मनुष्य में तिरस्कार करने की अपेक्षा सराहने योग्य बहुत अधिक बातें हैं।’’

कामू का दृष्टिकोण सदैव आशावादी रहा। उनकी मनुष्य की इस क्षमता में अटूट आस्था थी कि वह ‘स्वयं ही अपने लिए मूल्यों की रचना कर सकता है।’ जीवन अर्थहीन है लेकिन विद्रोह इस अर्थहीनता से आगे जाता है और संघर्ष आनन्द या खुशी की ओर अग्रहर करता है। अर्थहीनता, सामान्य समझ के परे, अबोध्य दुख और क्लेश, मृत्यु, साथ ही सोच, विद्रोह एवं आनन्द से सम्बन्धित धारणाएँ भारतीय चिन्तन से सीधे जुड़ी हैं। भारतीय दर्शन या पश्चिम में आमतौर पर जिसे हिन्दू धर्म कहा जाता है, ईसाइयत या इस्लाम की तरह कोई ऐतिहासिक धर्म नहीं है। लाखों वर्ष पहले स्वप्नद्रष्टा ऋषियों और चिन्तकों के लिए बुनियादी आदर्शों की परिकल्पना की गई थी, भारतीय दर्शन या हिन्दू धर्म उन्हीं को सतत सनातन बनाए रखनेवाली एक स्वयंचालित, स्वयं को नूतनता प्रदान करनेवाली शाश्वत प्रणाली है।

अधिकांश भारतीय धार्मिक और दार्शनिक कृतियों, विशेषकर भगवद्गीता में यही सूत्र वाक्य प्रतिपादित है कि मनुष्य की उच्चतम निष्ठा मनुष्य के प्रति है, न कि किसी मध्यस्थ या सत्ता के प्रति। ठीक इसी प्रकार का आह्वान कामू ने अपने समस्त लेखन में किया है, और यह आह्लान उनकी अपनी चारित्रिक विशेषता के अनुरूप बहुत अधिक उग्र और आक्रामक शैली में है। और ईसाइयत की पृष्ठभूमि वाले एक लेखक द्वारा मनुष्य को मनुष्य के रूप में श्रेष्ठता प्रदान करने, मनुष्य जीवन को स्वयं उसके उच्चतम लक्ष्य के रूप में मानने और मनुष्य के प्रयत्नों को धर्म के विशुद्धतम शिखरों तक ऊँचा उठाने की अवधाराणाओं में मुझे शोध के लिए एक रुचिकर बिन्दु प्राप्त हुआ। ‘कामू एवं वेदान्त’ (अंग्रेजी में-‘द हाइअर फीडेलिटी’) इसी शोधपरक परिश्रम का परिणाम है।

मैंने अपनी इस कृति को तीन खंडों में विभाजित किया है। प्रथम खंड में एक लम्बी भूमिका में विषय प्रतिपादन है, दूसरे खंड में भारतीय दर्शन की मूलभूत अवधाराणाओं का संक्षिप्त विवेचन है, उसमें भारतीय दर्शन की प्रमुख नौ शाखाओं एवं उनके दृष्टिकोणों के अन्तर की चर्चा है। तीसरे खंड में एक ओर जहाँ कामू के चिन्तन एवं भारतीय दर्शन में समानताओं का क्रमबद्ध परीक्षण है, और पश्चिमी दार्शनिक विचार से उसकी स्पष्ट भिन्नता का प्रतिपादक है, वहीं दूसरी ओर कामू पर औपनिषिदक विचार के प्रभाव का रेखांकन है। ‘द आउट साइडर’ एवं कठोपनिषद् के सैद्धान्तिक साम्य के अलावा ‘द प्लेग’ में गीता के विचारों एवं अवधारणाओं की पुनरावृत्ति पर प्रकाश डाला गया है। ईश्वरविहीन तारू गीता के अर्थों में एक सच्चा कर्मयोगी है। उसका चित्तमोहक एवं हृदय करुणा से पूरित है। इसके अलावा अज्ञान, इच्छा, आनन्द जो मानवीय जीवन का मुख्य तथ्य है, और उसकी प्राप्ति के एकमात्र मार्ग संघर्ष पर कामू के दार्शनिक चिन्तन की भी चर्चा है। इनके साथ ही है, आन्तरिक शुद्धता, और पवित्रता के प्रति विशिष्ट भावना, आध्यात्मिक एकात्म के प्रति उनकी अतीतोन्मुखी आतुरता, सच, अहिंसा, धर्म और ईश्वर पर कामू के विचारों को भी प्रस्तुत किया गया है। यह सर्वविदित है कि स्वयं को निरीश्वरवादी करार दिए जाने का कामू ने किस उग्रता से विरोध किया। इन अध्यायों में मैंने इस प्रश्न का उत्तर देने की चेष्टा की है कि अपने समकालीन लेखकों से कामू का चिन्तन क्यों इतना भिन्न था, और किस बिन्दु पर उसमें भारतीय चिन्तन का कब, कैसे और कितना प्रवेश हुआ ?

‘द हाइअर फीडेलिटी’ की रचना पेरिस के एडीशंस बैलैंड के अनुरोध पर की गई और जिन्होंने 1955 में उसके फ्रेंच अनुवाद का प्रकाशन किया। मुझे प्रसन्नता है कि मेरे कामू के लेखन के अनुवादों को प्रकाशित करनेवाले राजकमल प्रकाशन द्वारा इस कृति का हिन्दी अनुवाद श्री दुर्गाप्रसाद शुक्ल द्वारा प्रस्तुत किया जा रहा है। इस पुस्तक के प्रकाशन में भी अशोक महेश्वरी ने जिस स्वयंस्फूर्त हार्दिकता का परिचय दिया है, उसके लिए मैं सचमुच उनकी अत्यन्त आभारी हूँ। मुझे विश्वास है कि यह कृति अल्बैर कामू के मूलभूत दार्शनिक विश्वासों में भारतीय संघर्ष को स्थापित करने में उपयोगी सिद्ध होगी।
नई दिल्ली 29 मई, 2001
शरद चन्द्रा

देर आयद दुरुस्त आयद !

 

1995 में फ्रेंच में प्रकाशित द हाइअर फीडेलिटी कॅम्यू ए ले’ एंद, के मूल अंग्रेजी, द् हायर फिडेलिटी एवं अनुवाद का 2001 में प्रकाशन कई बातों पर सोचने के लिए विवश करता है। एक प्रश्न जो इस शोधपरक कृति का ‘स्वांतःसुखाय’ हिन्दी अनुवाद करते समय मुझे बार-बार कचोटता रहा कि इतनी अच्छी, शोधपूर्ण, विचारोत्तेजक कृति के भारत में प्रकाशन पर इतना विलम्ब क्यों हुआ ? लगभग डेढ़-दो-वर्ष पूर्व मुझे इस कृति के प्रथम अध्याय का अनुवाद करने के लिए दिया गया था। यों, मैं अनुवादक नहीं हूँ और अच्छा अनुवादक तो कतई नहीं। फिर भी एक आग्रह था, और उसे पूरा करना ही था। सौभाग्य से प्रथम अध्याय का अनुवाद शरदजी (लेखिका) को भा गया। फिर उनसे परिचय हुआ। लेकिन उनकी पूरी कृति मुझे नहीं मिली। बात आई-गई हो गई। लगभग छह-सात माह पूर्व मुझे पूरी पुस्तक के प्रूफ मिले। लगा कि कहीं उत्साहहीनता है। अतः मैं भी उसके अनुवाद के प्रति ‘ढीला’ पड़ गया। यहाँ मैं शरदजी का इस बात के लिए जरूर आभार व्यक्त करना चाहूँगा कि यदि वे इसके अनुवाद पर जोर न देतीं तो शायद मैं एक बहुत अच्छी कृति को पढ़ने से वंचित हो जाता। जैसे-जैसे अनुवाद करता गया, स्वयं को प्रताड़ित करता रहा कि मैंने भी उसके अनुवाद में इतना समय क्यों लगाया ? खैर ! ‘देर आयद, दुरुस्त आयद !’

मेरे विचार से द् हाइअर फीडेलिटी का साहित्य में एक स्थायी स्थान होगा क्योंकि इसमें कामू और वेदान्त के माध्यम से जिन प्रश्नों की चर्चा है, वे सनातन हैं, वे ऋग्वैदिक काल में भी थे, बुद्ध के समय भी और आज भी ! निस्सन्देह वे भविष्य में भी बने रहेंगे। परम्परावादी ईश्वरीय अवधारणा धार्मिक भावुक मन को जितना सुकून देती है, उतना ही प्रबुद्ध मानस को व्यथित करती है और निरीश्वरवाद की ओर ले जाती है। जब सर्वव्यापी, सर्वज्ञ ईश्वर की मर्जी के बिना एक पत्ता भी नहीं हिलता तो पृथ्वी पर इतना अन्याय और अत्याचार क्यों ? भ्रष्ट जन क्यों सुखी-सम्पन्न, ईमानदार क्यों विपन्न और दुखी। ऋग्वैदिक काल में शायद इसीलिए चार्वाक या लोकायत सम्प्रदाय ने ‘ईश्वर’ का तिरस्कार किया था। बुद्ध ने उसकी चर्चा को ‘अव्याकृत,’ अप्रासंगिक माना था कामू ने भी उसके अस्तित्व पर प्रश्न चिह्न लगाए। पर ईश्वर पर विश्वास करने का अर्थ अनाचारी-अत्याचारी होना नहीं है। मनुष्य ईश्वर पर अविश्वास रखकर भी सर्वजन कल्याण में जुट सकता है। चन्डीदास कहते हैं कि मनुष्य के परे और कोई सत्य नहीं। कामू भी यही मानते थे। उनके किसी समालोचक ने उन्हें ‘ईश्वरहीन सन्त’ कहा है, और निस्सन्देह वे अनेक ‘ईश्वरयुक्त सन्तों’ से कहीं अधिक श्रेष्ठ हैं।

शरदजी ने अल्बैर कामू का कृतियों का न केवल उनकी भाषा में अध्ययन किया है वरन् हिन्दी जगत के लाभार्थ, उनका मूल से हिन्दी अनुवाद भी किया है। उसके लिए निस्सन्देह प्रबुद्ध हिन्दी पाठक उनका आभारी होगा। उनकी इस कृति का इसलिए महत्त्व है कि वह कामू के चिन्तन और भारतीय दर्शन की समानताओं को रेखांकित करती है और दोनों को समझने में सहायक भी होती है। शरदजी ने कितने अध्यवसाय और परिश्रम से इस कृति की रचना की, यह केवल ‘बिबिलियोग्राफी’ को देखकर जाना जा सकता है। राजकमल प्रकाशन और श्री अशोक महेश्वरी इस कृति को हिन्दी पाठक तक पहुँचाने के माध्यम बने हैं, इसके लिए वह अर्थात् हिन्दी पाठक अवश्य ही उनका भी आभार मानेगा।
अनुवादक

 

शिखरों की ओर आरोहण का संघर्ष ही किसी मनुष्य को आह्लादित करने के लिए पर्याप्त है। किसी को भी खुश सिसीफस की कल्पना करनी चाहिए।
मिथ ऑव सिसिफ

प्रथम खंड

प्रथम अध्याय
कामू और भारतीय दर्शन

 

जून 1958 की बात है। कार्ल विज्जियानी कामू की जीवनी लिखने जा रहे थे। तब कामू ने उन्हें बताया था कि 1930-36 के बीच लियोन चेस्तोव, स्पिनोजा, देकाचे और मैक्सशेलर की कृतियों के अतिरिक्त जिन अन्य महत्त्वपूर्ण विषयों ने उनका काफी कुछ समय लिया, उनमें ‘ला फिलासफे हिन्दी’ का अध्ययन भी शामिल था।1 विज्जियानी का अगला तर्कसंगत प्रश्न था कि क्या वे दर्शन का प्रोफेसर बनने का इराजा रखते थे ? उनके स्थान पर यदि मैं होती तो पूछती, ‘‘भारतीय दर्शन के कौन से ग्रन्थ ?’’ ‘‘किसके द्वारा अनूदित ?’’ ‘‘भारतीय दर्शन क्यों ?’’ ‘‘आप कैसे उसकी ओर आकर्षित हुए ?’’ ‘‘किसने आपका उससे परिचय कराया ? उसने आपको किस तरह प्रभावित किया ?’’ ‘‘क्या किसी अवधारणा या आदर्श ने आपको खासतौर पर प्रभावित किया ?’’ आदि, आदि। पर ऐसा नहीं हुआ। इसके विपरीत उनके लेखन में मुझे अपने प्रश्नों के उत्तर खोजने पड़े। यों भी उनके लेखन में मुझे प्रारम्भ में ही जो स्वर सुनाई दिया था, वह स्पष्टतः भारतीय प्रतीत हुआ था और उसी ने मुझे उनके द्वारा लिखित रचनाओं को, उनके मित्रों, विद्वानों, जीवनीकारों, समालोचकों द्वारा उनके विषय में किए गए लेखन को पढ़ने के लिए प्रेरित किया ताकि यह जान सकूँ कि मेरी इस धारणा में क्या कोई तत्त्व है, उस अनोखे अनुशीलन के पीछे क्या कोई कारण है। और, जैसा मैंने बाद में जाना, मेरी ये प्रेरणाएँ न तो पूर्णतः निराधार थीं और न मेरा परिश्रम निष्फल गया था। तथापि आगे आने वाले पृष्ठों में ऐसी कोई आकांक्षा नहीं है कि कामू पर एकमात्र भारतीय प्रभाव का कोई दावा स्थापित किया जाए। इसके विपरीत वे कामू के विचार के उस पक्ष को स्पष्ट करने की कोशिश करते हैं जो आमतौर पर यूरोपीय समझे जानेवाले विचारे से अद्भुतरूपेण पृथक है और जो उसे प्रमुखता से पौर्वात्य रंग देता है।
पॉल व्यालेने ने ‘यूथफूल राइटिंग्स ऑव अल्बैर कामू’ (पेंग्यूइन, 1984) की अपनी भूमिका में लिखा है कि नवयुवा कामू ने बहुत पहले ही पास्कल और सन्त आगस्तीन पर दार्शनिक चिन्तन और गूढ़ ध्यान प्रारम्भ कर दिया था और ‘अपनी शिक्षिका जौं ग्रोंनियर के परामर्श पर भारत के पवित्र ग्रन्थों में रुचि लेनी शुरू कर दी थी।’2 ये मैक्स-पॉल फोशे थे, जिन्होंने इन ग्रन्थों में से एक विशिष्ट ग्रन्थ का नाम भगवद्गीता बतलाया,3 और यह एक ऐसा तथ्य था जिसकी बाद में हर्बर्ट लाटमैन,4 मैडम जौं ग्रोंनियर्5 और कामू को दो सन्तानों6 ने पुष्टि की।

‘भगवद्गीता’ अथवा मात्र ‘गीता’ समस्त भारतीय चिन्तन का सार है। और इस तरह वह भारतीय दर्शन का सर्वोत्तम परिचय भी है। यह सम्भव नहीं प्रतीत होता कि इस क्षेत्र में कामू ने गीता के अतिरिक्त किन्हीं अन्य ग्रन्थों का प्रत्यक्ष पाठगत अध्ययन किया हो, यद्यपि किसी पाठक को उनके लेखन में वेद,7 वेदान्त,8 ‘लुई द मौनू,9 उपनिषद्,10 वुद्ध,11 शंकर,12 और रामकृष्ण,13 का यदा-कदा उल्लेख अवश्य दिखाई पड़ता है। पश्चिम में अधिक स्वीकार्य विचारधारा का अनुसरण करते हुए इस प्रकार के सुझाव दिए गए हैं कि ब्रह्मवाद या हिन्दू धर्म की अपेक्षा, हो सकता है, बौद्ध धर्म ने कामू के विचार को स्पष्ट भारतीय पुट दिया। मुझे यह बहुत सम्भव प्रतीत नहीं होता। यह मुख्यतः इसलिए कि बुद्ध के प्रति कामू का सम्मोहन उनके दर्शन की अपेक्षा, उनके व्यक्तित्व पर केन्द्रित है। वे बुद्ध की शान्ति और समरसता निस्पन्दित करनेवाली अभिव्यक्ति की निर्मलता से, उनकी संन्यस्त जीवनशैली से, समाधि की असाधारण शक्ति से, अपने संकल्पों और इच्छाओं पर उनके पूर्व नियन्त्रण से प्रभावित थे।14 यह भी सर्वविदित है कि वे अपने प्रिय आनातोल लेखक फ्रांस की भाँति पेरिस के ‘ल क्यूजी गुइमे* में कई बार गये थे। इस संग्रहालय के एक सम्पूर्ण तल में बुद्ध की प्रतिमाओं और चित्रों का शानदार संग्रह है, जिसे वे बार-बार देखा करते थे। कामू के ‘ल विसेज दिक्रेत दु बुद्धा’,15 लेवा आइरनीक्यू ए दिक्रेत्स दु बोधिसत्व’ जैसे उल्लेख दर्शाते हैं कि बुद्ध के मुखमंडल की शान्त और समरसतापूर्ण अभिव्यक्ति ने उन्हें कितना प्रभावित किया।

बुद्ध लुंबिनी के राजकुमार सिद्धार्थ के रूप में जन्मे थे। एक सन्ध्या को जीवन में पहली बार मानवीय दुःख-दैन्य को देखकर वे स्तब्ध रह गए थे और रात्रि के निविड़ अन्धकार में वे अपनी पत्नी, अपने पुत्र, एवं राजसी जीवन के समस्त वैभव, विलास का परित्याग कर मनुष्य के क्लेश के समाधान की खोज में निकल पड़े थे। कामू का दार्शनिक सम्राट कालिगुला भी लगभग इसी शैली में, ऐसी स्थिति में, ऐसे ही कारण से अपने प्रासाद से लुप्त हो जाता है। प्रथम दृष्टि में ये दोनों पलायन आश्चर्यजनक ढंग से बिलकुल समान प्रतीत होते हैं पर यह समानता बड़ी तेजी से लुप्त हो जाती है। कामू के लेखन में इस बात का कोई संकेत नहीं मिलता कि उन्होंने बुद्ध की शिक्षाओं या उनके प्रवचनों को कभी पढ़ा हो और न उनके जीवन में बौद्ध धर्म के सिद्धान्तों का पालन करने की कोई स्पष्ट इच्छा ही दिखाई देती है। बौद्ध धर्म का वे ‘ईश्वर-विरोधी’,17 और धर्म में परिवर्तित नास्तिवाद’ के रूप में वर्णन करते हैं और बौध धर्म के प्रति यहीं तक उनकी समझ थी। बौध धर्म का अपना यह अवलोकन सम्भवतः उन्हें सुखकर भी लगा होगा, क्योंकि वह उनकी अपनी विचारधारा से सहज मेल खाता था। पर किसी गम्भीर पाठक को वह सामान्यतः सर्वविदित तथ्यों से अधिक जानकारी नहीं देता।
*गीमे म्युज़ियम
कामू के विचार विन्यास में आनन्द के प्रति घोषित निकटता और सांसारिकता के प्रति जोर है। यह उन्हें वेदान्त के शंकर मतवाद और गीता के दर्शन से अधिक सम्वद्ध करता है,19 बनिस्बत संसार का परित्याग करनेवाले, वैराग्य-प्रधान बौद्ध धर्म से। बौद्ध धर्म सचेतन तथा निर्वाद रूप से मनुष्य की सामान्य प्रज्ञा और सामान्य अनुभव पर आधारित है। वह जीवन की समस्या का तर्कशील विश्लेषण प्रस्तुत करता है। चूँकि वह अपने ज्ञान में हिस्सा बाँटकर प्राणिमात्र की मुक्ति के लिए प्रतिबद्ध है, वह एक जीवन्त एकात्म भाव, प्रेम और करुणा, दया की शिक्षा देता है। तथापि यथासम्भव शीघ्रातिशीघ्र बोधत्व और निर्वाण की स्थिति प्राप्त करने की चिन्ता में वह तमाम सांसारिक स्वार्थों, कार्यकलापों और दायित्वों के परित्याग का अनुसरण करता है। हिन्दू धर्म की एक प्रशाखा होने के कारण अपने मु्ख्य प्रयोजन और जीवन के लक्ष्य में वह अपने मूल स्त्रोत से पृथक नहीं है तथापि उसने अपना स्वयं का एक मार्ग बनाया है और विवेचन-विश्लेषण किया है। अपने उपदेशों में बुद्ध ने हिन्दू धर्म की अधिकांश रुपरेखा को बनाए रखा है, पर उन्होंने दो मूलभूल अवधारणाओं यथा ब्रह्म आत्मा की अवधारणाओं को अस्वीकृत कर दिया है, क्योंकि वे प्रयोगों द्वारा सत्यापित नहीं की जा सकतीं। इसी तरह बौद्ध दर्शन की आधारभूमि की रचना करनेवाले उनका चार आर्य सत्य भी ईश्वर, आत्मा या पारलौकिक विद्या या मानवीय बुद्धि के परे किसी अनुभव का कोई उल्लेख नहीं करते। सार्वभौम रूप से स्त्री-पुरुष जिस कठिन व्यावहारिक समस्या का सामना करते हैं, बुद्ध उसी के निराकरण के लिए संसार को मात्र मार्ग सुझाते हैं। बौद्ध दृष्टिकोण एवं शंकर के वेदान्तिक मतवाद में एक प्रमुख अन्तर आनन्द की अवधारणा है, जो कामू की तीन मुख्य विचारधाराओं में एक है। बौद्ध धर्म का आध्यात्मिक लक्ष्य निर्वाण है जिसका बहुधा नाश, सम्पूर्ण विनाश या शून्य की स्थिति के बतौर गलत अर्थ किया जाता है। यदि इस गलत अर्थ को सुधार कर निर्वाण को विशुद्ध शान्ति और समस्त स्वार्थपरक इच्छाओं-लालसाओं और पीड़ाओं के विनाश की स्थिति के रूप में भी परिभाषित किया जाए तो भी वह एक नाश की स्थिति का आभास देगा ही। जो उपनिषदों के मोक्ष या मुक्ति से, जो प्रहर्ष, तन्मयता, पराकाष्ठा और परमानन्द की स्थिति है, पूर्णतः भिन्न है। बुद्ध के विपरीत शंकर का चिंतन मात्र मानवीय क्लेश द्वारा प्रस्तुत समस्या से नहीं वरन् उसके सकारात्मक प्रतिरूप अर्थात् आनन्द के लिए मनुष्य की खोज से उद्भूत होता है। उनके सम्पूर्ण दर्शन की चिन्ता ‘पीड़ा और क्लेशों को समूल नाश और परमानन्द की प्राप्ति’ ही है। और उन्हें पूर्ण विश्वास है कि अपने दोनों पक्षों सहित यह चिन्ता अनुन्मूलनीय रूप से मानवीय स्वभाव में ही अवस्थित है। और अधिक तथा सूक्ष्म जटिलताओं में उलझे बिना ये मोटे-मोटे तथ्य यह दर्शाने के लिए प्रर्याप्त हैं कि कामू के विचारों में बौद्ध धर्म नहीं, वरन् गीता और वेदान्त के दर्शन से साम्य दिखलाई देता है। गीता, साथ-ही-साथ शंकर भी यही बतलाते हैं कि कोई व्यक्ति जीवन की अच्छी और सुखद वस्तुओं का उपभोग करने के बाद भी किस तरह शीलाचार की अमर संहिताओं का पालन कर सकता है।

यह निश्चयपूर्वक नहीं कहा जा सकता कि कामू का भारतीय आगमों-निगमों का अध्ययन मात्र गीता तक या उससे भी अधिक था, तथापि यह अवश्य कहा जा सकता है कि इस अध्ययन का उनके मस्तिष्क पर सुसंगत प्रभाव पड़ा जो उनके अपने लेखन में उसकी महत्त्वपूर्ण अवधारणाओं की अनूगूँज के रूप में स्पष्ट है। एटीने लामोते ने 1922 में गीता का अपना एक उत्कृष्ट, विद्वतापूर्ण, प्रवाहमय वस्तुपरक अध्ययन प्रकाशित किया था। इसकी बहुत अधिक सम्भावना है कि जौं ग्रोंनियर ने यही पुस्तक उन्हें (कामू को) दी थी या उसे पढ़ने का परामर्श दिया था। ईसा पूर्व लगभग प्रथम शती की रचना गीता शंकर के वेदान्त मतवाद (आठवीं शती) के तीन प्रमुख स्त्रोतों में से एक है और दोनों की आत्मा और ब्रह्म के एकत्व के औपनिषदिक दर्शन की, जो सम्पूर्ण भारतीय विचारधारा के मूल में है, व्याख्या करते हैं। कामू ने प्रबल आग्रह के साथ जिस सिद्धान्त की उद्घोषणा की है वह वही है, जिसकी भारतीय शास्त्रों ने सनातन शिक्षा दी है कि मनुष्य की उच्चतर निष्ठा मनुष्य के प्रति है न कि किसी बाह्य सत्ता, शक्ति या माध्यम के प्रति आनेवाले पृष्ठों में मैंने इसी समरूपता, इसी मिलन बिन्दु को जाँचने-परखने का प्रयत्न किया है।

यह तथ्य कि अपने गीता के अध्ययन के माध्यम से कामू को भारतीय दर्शन के प्रमुख विचारों का परिचय मिला था, मेरे इस तर्क को बल देता है,पर यदि ऐसा नहीं होता तो भी उनके लेखन में भारतीय दर्शन के कुछ मोहक अनुचिह्न स्पष्ट दृष्टिगोचर होते हैं। (1) उनकी अस्तित्ववादी पृष्ठभूमि के कारण-अस्तित्ववाद एवं भारतीय दर्शन के मध्य साम्य पर पाश्चात्य विद्वानों के साथ-साथ भारतीय विद्वानों ने भी ध्यान दिया है,23 और (2) उनके विचारों पर पारमेनिडेस, प्लूटो, सन्त एक्यूइनास कोट शॉयेन हेर जैसे दार्शनिकों के प्रभाव के कारण, क्योंकि उपनिषदों के मूलभूत सिद्धान्तों और इन यूरोपीय दार्शनिकों के विचारों के मध्य एक ‘अद्भुत सहमति’ मौजूद है।24 लन्दन के रॉयल इंस्टीट्यूट में मैक्समूलर ने एक विशिष्ट श्रोता-समुदाय के समक्ष वेदान्त और यूरोपीय दर्शन के मध्य ‘चमत्कारी समानताओं’ पर तीन भाषण दिए थे। वे यह बतलाते हुए आवेशित हो उठे थे कि उपनिषदों में परिकल्पित और शंकर द्वारा परिभाषित ब्रह्य स्पष्ट रूप से स्पिनोजा के ‘सब्सटैंशिया’ की भाँति ही है।

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